Monday, February 2, 2009


कहना था तुमसे कुछ पर लव्ज़ जैसे मइलते ही नही ।
दइल की आवाजों को कान जैसे मइलत ही नही ।

पंख लगाके उड़ना था सपनो को मेरे ,
लिक्न , ना खिड़की है ना दरवाज़ा घर में तेरे ।
पतंग की डोर भी कह आती आकाश से बातें निराली
हवा के कानो में हओ जैसे गुनगुनाती
अपने दइन भर की कहानी ।

सब पहरों को तोड़ एक खिड़की नई बनाओ ना ,
छूना है आकाश मुझे भी , एक डोर नई लाओ ना ...

3 comments:

  1. hey...lovely poem babes:)
    keep up d gud wrk...
    awaitin ur nxt post
    lv ya...bi

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  2. Lovely poem :)
    Enjoyed reading it :)
    you seem to be a good poetess :)

    cheers,
    phoenix wizard :)

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  3. hey sweetie...ur poems reflect a pain hidden sumwhere in d deepest crevices of ur hrt...can feel ur pain though...
    tc dear..
    bbi

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